Sunday, February 8, 2009

"माँ" (सत्य कथा पर आधारित )

रात का सनाटा गहराता जा राहा था। झींगुरों की आवाज़ एक स्वर में सितार बजा रही थी,कुत्तो के बुबुआने के स्वर वातावरण में घबराहट पैदा कर रहे थे । पर उस बूढे और अध् गिरा मकान के एक कोने में एक जोड़ा बूढी आंखे अभी भी किसी की बाट जोह रही थी। हांथो में थी ताश की गड्डीजिसे वो बड़ी जल्दी जल्दी फेंट रही थी और पेशंस लगा रही थी ,पर यह्ही पेशेंस उसके चहरे और हांथो में ज़रा भी दृष्टिगत नही हो रहा था। अचानक उसकी निगाहे घड़ी की तरफ़ उठी रात के साढ़े बारह बज चुके थे,उसने गहेरी साँस ली और एक कोने में धूल से पटी अजनबी सी पड़ी टॉर्च को उसने इस ढंग से उठाया जैसे ख़ुद अपनी जिंदगी का कोई बोझ उठा रही हो। कानो से कम सुनाने वाली आँखों से ही कानो का काम लेने वालीवो फरवरी की उस ठण्ड भारी रात में एक नैंसी की तरह लंबी सी नाईटी पहने और कान में कंटोपा बांधे उन अंधे री गलियों में उसके पाँव इस तरह से बढ़ रहे थे मनो कीसी ने उसे जीवन से बीस साल पीछे धकेल दिया हो।अपने आप में बडबडातीऔर अपने ही तानो बानो के बीच मकड़ी सी उलझती वोह चली जा रही थी। अचानक उसका कलेजा थर थारा उठा पल भा को वोह थमी होंठ बुद बुदा उठे "पिछली होली में मुह तुडा के आया था आज न जाने कहा होगा"। पिछली ही होली कीतो बाट है इसका लाडला शराब के चक्कर में मुंह तुडा बैठा था, और वोह चेहे रा जिसे प्रकृति ने सुन्दरता से गढा था भयानक आकृत में बदल चुका था । तभी से इस माँ का कलेजा सिकुड़ कर इतना छोटा होगया था की सिवाय लाडले के उसमे किसी के लिए जगह नही थी।
आज उसका दुलारा अपनी बुआ के घर फ़िल्म फेयेर अवार्ड नाईट देखने गया था ,अंधेरी गलियों का रास्ता कब कटा पता ही नही चला आपे में आयी तो पाया वह उस दरवाज़े पे थी जिसकी उसको तलाश थी। दरवाज़े को हल्का सा छुआ वह लकड़ी का बेजान दरवाजा इस तरह से खुल गया मानो वोह माँ की इस ममता को बाहों में समेट लेना चाहता हो। बुढ़िया के चहरे पर मंजिल पर पहुँचने का इत्मीनान साफ़ झलक रहा था । अन्दर पहोंच कर आवाज़ दी " बेटा" रात के सन्नाटे को ममता भारी आवाज़ ने ऐसा चीरा जैसे दर्द की लकीर खींचती चली गयी हो।
अभी वोह सम्हली भी नही थी की अचानक उसका बुधा शरीर अनजान वारो को झेलने लगा। अधमरी सी बरांडे की कुर्सी पर गिर गयी,और अघातो को सहती रही। आँखे खोली तो उनकी फटने की सीमाए भी ख़त्म हो गयी थी,ऐसा लगा लहू आँखों को चीर कर टपक ही तो जायगा।
कितना वीभत्स दृश्य था उसका अपना लाडला हांथो में चप्पल उठाये उसकी बूढी देह पर निशाँ पर निशाँ बनाता जा रहा था । ह्हंठो में अपना चेहरा छुपाये वह गक्थारी सी बनी सिमटती जा रही थी ,तभी उस घर की बहू जग गयी बोली "कोई अपनी माँ को ऐसे मारता है "। .......नशे में चूर बेटे की आवाज़ गूंजी "ये पगली है ,इसका यही इलाज है"।
वक्त मानो सहम गयावोह सर्दीली जमी हुई रात दर्द से पिघल गयी। बुढ़िया ने कराहते हुए अपने आप को समेटा एक नज़र लाडले पर डाली जिससे अभी भी ममता का पानी फूट रहा थाऔर लडखडाती हुई चल पडी उन्ही अंधेरी गलियों में .......पर उसकी चाल से ऐसा लगता था उसी उम्र बीस साल ज्यादा हो गयी हो।
सत्य कथा पर आधारित
माँ को समर्पित
प्रिती

4 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

कितना वीभत्स दृश्य था उसका अपना लाडला हांथो में चप्पल उठाये उसकी बूढी देह पर निशाँ पर निशाँ बनाता जा रहा था । ह्हंठो में अपना चेहरा छुपाये वह गक्थारी सी बनी सिमटती जा रही थी ,तभी उस घर की बहू जग गयी बोली "कोई अपनी माँ को ऐसे मारता है "। .......नशे में चूर बेटे की आवाज़ गूंजी "ये पगली है ,इसका यही इलाज है"।
वक्त मानो सहम गयावोह सर्दीली जमी हुई रात दर्द से पिघल गयी। बुढ़िया ने कराहते हुए अपने आप को समेटा एक नज़र लाडले पर डाली जिससे अभी भी ममता का पानी फूट रहा था....Kmal ka satya...!! Aankhen nam ho gayi...!!

Science Bloggers Association said...

ईश्‍वर ऐसे लोगों को सदबुद्धि दें।

पूनम श्रीवास्तव said...

आदरणीय प्रीति जी,
पढ़ कर सहसा विश्वास नहीं हुआ की एक मां की ममता का ये भी सिला मिल सकता है ,वो भी उसके अपने बेटे के द्वारा .मां को गहरे तक आंदोलित करने वाली कथा .
पूनम

बाल भवन जबलपुर said...

Vicharneey