Sunday, February 8, 2009

मंथन

अपने हृदय के इस समुन्द्र मंथन में ,

जिस शिला खंड को डाला है मैंने ,

उसे मैंने प्रेम के कच्चे धागों से बांधा है,

सत्य जो मेरा है , और झूठ जो तुम दे गए ,

यदि मै जीती तो निशचय ही अमृत पान करूगी ,

और यदि तुम जीते तो विष भी मुझे ही पीना पडेगा

जीत तो तुम ही गए ......

पर दिये हुए विष को अमृत समझ कंठ में उतरा है मैंने ।

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विनय की याद में प्रीती

1 comment:

daanish said...

काव्य में समर्पण भी है, स्वाभिमान भी....
मंथन ही एक विशवसनीय विश्लेषण है
रिश्तों की सच्ची गहराई को नापने का .....
कविता, भाव-पक्ष और कला-पक्ष
दोनों तरह से बहुत बढ़िया है .. . .
बधाई स्वीकारें . . . . .
---मुफलिस---